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भारतीय ज्ञान परंपरा से रोज़गार, आत्मनिर्भरता और समाज का निर्माण होता है

                                                                                                                                                                        25.05.2023

भारतीय ज्ञान परंपरा से रोज़गार, आत्मनिर्भरता और समाज का निर्माण होता है


भारतीय ज्ञान परंपरा रोज़गार के साथ समाज का उत्थान करती है
• सांची विश्वविद्यालय में विशेष व्याख्यान का आयोजन
• भारतीय ज्ञान परंपरा में शोध दृष्टि पर डॉ. बोबड़े का व्याख्यान
• समग्र दृष्टि से शोध की आवश्यकता पर दिया ज़ोर

साँची बौद्ध-भारतीय ज्ञान अध्ययन विश्वविद्यालय व रिसर्च फॉर रिसर्जेन्स के संयुक्त तत्वावधान में आज विश्वविद्यालय परिसर में एक विशिष्ट व्याख्यान का आयोजन किया गया। "भारतीय ज्ञान परंपरा में शोध दृष्टि" विषय पर आयोजित इस व्याख्यान में नॉलेज रिसोर्स सेंटर के निदेशक डॉ. भुजंग रामराव बोबड़े ने
छात्रों के साथ-साथ शिक्षकों से भी आह्वान किया कि वो भारतीय ज्ञान परंपरा के अनुसार शोध कार्यों के प्रयास करें।

उन्होंने कहा कि वर्तमान दौर सूचना का दौर है और अगर हम इस सूचना/जानकारी को अपने दैनिक जीवन में उपयोग नहीं कर सके तो वह ज्ञान नहीं बन सकेगा। उन्होंने बताया कि भारतीय ज्ञान परंपरा में ज्ञान(Knowledge), प्रज्ञा(Wisdom) और सत्य(Truth) का समावेश है और प्रज्ञा वह है जिसके कारण मनुष्यों और प्रकृति में सद्भाव है। उन्होंने कहा कि भारतीय ज्ञान परंपरा के माध्यम से न सिर्फ रोज़गार उपलब्ध होते हैं बल्की व्यक्ति आत्मनिर्भर होने के साथ-साथ ऐसा ज्ञान देती है जिससे समाज का भला हो सके। उन्होंने कई उदाहरणों के ज़रिए बताया कि आज  भी भारतीय ज्ञान परंपरा पांडुलिपियों में सुरक्षित है।

डॉ. बोबड़े ने बताया कि महाराष्ट्र के आदिलाबाद में एक शख्स से प्राप्त पांडुलिपि में चिकनगुनिया की बीमारी का इलाज़ उल्लेखित था जिसके आधार पर मात्र 2 रुपए में मिलने वाली तुलसी घनवटी को बनाया गया। उन्होंने बताया कि एक प्राचीन पांडुलिपि में लिखा है कि यदि गाय के घी के साथ लहसुन का सेवन एक महीने तक किया जाए तो कान की समस्त बीमारियां दूर हो जाती हैं।

डॉ. बोबड़े ने कहा कि इन प्राचीन ग्रंथों में आज भी ज्ञान मौजूद है यदि इन पर गहन शोध किया जाए तो मानवता की कई समस्याओं को हल किया जा सकता है। अल-बरूनी के तारीख-ए-हिंद का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा कि अलबरूनी ने भारत में आकर दशावतार का अध्ययन किया था जिसके बाद उसने इसमें भारत की प्रशंसा की थी।

अपने व्याख्यान में उन्होंने योगशास्त्र के फारसी में अनुवाद, सांची स्तूप के Scientific Study of Sanchi Stupa इत्यादि पुस्तकों का वर्णन किया और कहा कि इन शोधों को यदि आगे बढ़ाया जाए तो कई प्रकार के नए ज्ञान के मार्ग खुल सकते हैं।

विश्वविद्यालय के कुलसचिव प्रो. अलकेश चतुर्वेदी ने कहा कि आज पश्चिम के अंधानुकरण के कारण कई भारतीय अवधारणाओं के अनर्थ निकल रहे हैं। उन्होंने फ्रांस की क्रांति, कर्म, मुक्ति और मोक्ष जैसे विषयों पर चर्चा की।